‘’ शाब्दिक अर्थों में गुम होते भारतीय ज्ञान , दर्शन, विज्ञान “( चिंता है आरोप नहीं ) क्योंकि नव-निर्माण (व्यक्तिगत और सामाजिक ) की जगह समय के प्रत्येक पल में होती है |
प्रत्येक कर्म आस्था से जुड़ा होता है, जो इस आस्था को जिस दिशा में मोड़ देता है वैसे ही फल प्राप्त होते हैं, पिछले पचास वर्षों में पश्चिमी सभ्यता से आस्था ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान को एक मात्र दिखावे के रूप में बदल दिया , मानवीय मनोविज्ञान कल पैदा हुआ चेप्टर मात्र है, स्वयं की खोज एक मात्र विज्ञान है भारतीय सभ्यता का जो स्वयं के उन्नयन की बात करता है | कई मनीषियों ने इस मनोविज्ञान को एक लाइन में कह दिया की “ जग कैसो कि मो सो “ |
भारतीय पूजा पद्धति का शाब्दिक अर्थ दिया गया उसका व्यावहारिक अर्थ कभी देखा ही नहीं गया, जबकि “ जड़ और चेतन का सम्मानजनक समन्वय ही प्रगति का एक मात्र सिद्धांत है ‘’ जिस से प्रथ्वी के प्राकृतिक रहस्यों की रक्षा भी अनायास ही हो जाया करती थी, पर जड़ का वस्तु और चेतन का लाभ से जुड़ना जैसे-जैसे बढ़ता गया , प्राकृतिक समन्वय भी अस्ताचल की ओर बढ़ता गया |
भारतीय पूजा पद्धति समाज के उस अंतिम व्यक्ति का भी ध्यान रखती है जिस के पास एक इंच भूमि भी नहीं , ये एक ऐसी व्यवस्था है जो नर और नारायण दोनों को एक सी उच्च अवस्था में स्थित भाव से सम्मानजनक स्थान देती आई है | पर एक कमी है ये ‘’ किसी अंग्रेजी विद्वान् ने नहीं लिखी और ना किसी क़ानून के तहत पेटेंट प्राप्त विषय है ‘’ | कारण वही ‘’ शाब्दिक अर्थ “ |
इस से परे जा कर पूजा पद्धति के व्यावहारिक और आस्थागत आयामों को समझाया गया होता तो आज हमारे महाविद्यालयों में प्रबंधन की किताबें विदेशी लेखकों द्वारा या विदेशी विचार से ओत-प्रोत भावों में नहीं होतीं , मजे की बात यह है की इन किताबों में ज्ञान का आधार तो भारतीय ही है परन्तु पश्चिमी – स्वार्थ से प्रेरित हो कर कई रंगों में उपलब्ध है |
परफेक्ट मशीन ट्रस्ट ( पुणे ) , के मालिक श्री डी.एल.शाह वो व्यक्ति हैं जिन्हीने आई.एस.ओ. पर पूर्ण अध्ययन तब कर लिया था जब यह भारत में आया भी नहीं था, केवल एक विचार विश्व की बौद्धिक संपदा पर आच्छादित किया जाने का प्रयास चल रहा था ये समय होगा लगभग १९७०-८० का दशक , तब उन्होंने निष्कर्ष में लिखा था ‘’ कुछ भी ऐसा नहीं सी में जिसे हम भारतीय ना जानते हों , यह पूरा विचार जिसे आई.एस.ओ. के रूप में दिया जा रहा है वो महात्मा गांधी के बाजार-व्यवस्था के सम्बन्ध में दिए गए कुछ वक्तव्यों में समाहित है, या यूँ कहें की ‘’ महात्मा गांधी के बाजार-व्यवस्था के सम्बन्ध में दिए गए कुछ वक्तव्यों की अंग्रेजी में व्याख्या भर है “ | पर श्री शाह साहब भी क्या करें एक भारतीय का अन्वेषण जो ठहरा ?
बात अन्वेषण की है, किताबों में लिखी शाब्दिक ज्ञान की श्रंखला को सम्पूर्ण अर्थों में समझने की परन्तु उस आदत का क्या करें जो पश्चिमी नक़ल पर हमें बाध्य कर देती है, ये बात अलग है की उनके ज्ञान का स्त्रोत भारतीय-ज्ञान ही है, जिसे विभिन्न कालखंडों में आक्रमणकारी भारत से अपने देशो में ले गए और अपनी स्थित मजबूत करने के लिए उस ज्ञान को उन्होंने अपनी अन्वेषण शक्ति से अपने अनुरूप बना कर अंग्रजी में हमें सौंप दिया और हमने सर झुका कर स्वीकार कर लिया | कारण केवल एक ‘’ भारतीय वातावरण ‘’ में हुए अन्वेषण को उपयुक्त स्थान ना मिलना |
भारतीय पूजा पद्धति बड़े ही सुन्दर भावों के साथ समाज की प्रत्येक बात का ध्यान सम्पूर्ण आस्था से संवर्धित और सज्जित करती है, जो की ईश्वरीय शक्ति के प्रति समर्पित होते हुए वैज्ञानिक, आर्थिक, शक्तिशाली समाज के संगठनात्मक पहलू को एक धागे में पिरोती है, आवश्यकता है एक ईमानदार और साहसी अभियान की |
.. स्वस्थ आलोचना विषय को विस्तार दे कर अन्वेषण में बदलती है सहमति विषय को विराम |
…मेरा अज्ञानी होना मेरे ज्ञानी होने ज्यादा महत्वपूर्ण है और श्रेष्ठ है |
Nice…..!!!